'‘कसाब’

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कवि ‘सौम्य मालवीय’ अपने नाम की तरह इतने शांत, संकोची और सौम्य है कि सिर्फ गिने चुने दोस्तों को ही अपनी शानदार कविताओं से लाभान्वित करवाते हैं। पिछले वर्ष एक निजी बैठक में (जिसमे, अंशु मालवीय, दिगंबर आशु जी, कुमार मुकेश, आशु वर्मा, गुरप्रीत कौर, डोकुमेंटरी फिल्म मेकर निर्मल चंदर और सौम्य शामिल थे) पहली बार सौम्य को सुना और बेहद प्रभावित किया। पढे उनकी नई कविता ‘कसाब’ 
'‘कसाब’ -- सौम्य मालवीय

एक अरसा हो गया था कसाब
सुनते हुए तुम्हारा नाम 
इस बीच ये भी पढ़ा अख़बारों में की कब तुमने जम्हाई ली !
किसी सत्र में तुम मुस्कुराये भी शायद!
कुछ जिरह की अपनी तरफ से 
अपने वकील से कहा कुछ 
और भी बहुत कुछ सुना, पढ़ा, देखा तुम्हारे बारे में कई बार
इतना की कुछ अपनापन सा हो गया था तुमसे !
जैसे हमारे असंदिग्ध नरक में तुम देर तक और दूर तक चलने वाला 
कोई इंतजाम हो गए थे 
समाचार चैनल आये दिन 
तुम पर 'ओपिनियन पोल' चलते थे 
और खुश थी मोबाइल कम्पनीयां की राष्ट्र हित में बटन दबाने को 
कई तत्पर और तत्सम भारतीय 
सदैव तैयार होते थे 
पुटुर-पुटुर, पट-पट 
दाहिने-बाएं, दाहिने-बाएं 
पुटुर-पुटुर, पट-पट 


फिर एक दिन अचानक 
एक निष्कपट से लग रहे बुधवार को 
दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र ने 
तुम्हें फांसी पर लटका दिया 
गहरी गोपनीयता में मगर,
चुपचाप, गुपचुप-गुपचुप 
दम साधे रहस्य का तम साधे हुए 
यरवदा जेल के गाँधी अनुप्राणित वातावरण में 
तुम्हारी झूलती हुयी देह वह अक्ष बनी 
जिस पर थिर हुआ राजनीतिक संतुलन 
और कुछ संतरियों, अधिकारियों और 
एक सरकारी डॉक्टर के बीच 
जनतंत्र शिरोमणि हुआ!



पर जो भी हुआ इस खामोश-लबी के साथ क्यूँ हुआ 
तुम कोई भगत सिंह तो थे नहीं !!
के जेल के दरो-दीवार तक इस फैसले से 
बगावत कर उठते 
फिर ये एहतियात ये चुप्पा-घात क्यूँ?
शायद इसलिए की प्रतिशोध
चाहे वह दुनिया के 
सबसे बड़े लोकतंत्र ने ही क्यूँ न लिया हो 
कहीं न कहीं लज्जास्पद भी होता है 
क्या तुमसे इंतकाम लेकर 
कुछ घंटों के लिए ही सही 
आर्यावर्त शर्मसार हो गया था कसाब !
हत्या के बाद का चेतनालोप 
वह जो कुछ देर के लिए हत्यारे को शून्य कर देता है ...


पता नहीं क्यूँ 
पर लोकतंत्र की इस तरतीब से मुझे 
भगत सिंह का ध्यान हो आया है 
भगत सिंह, कसाब तुम जानते नहीं होगे शायद 
वह बीसवीं सदी के बसंत का 
एक क्रांतिचेता बीज था 
तुम्हें तो यह कौल भी नहीं होगा 
की तुमने जो क्या वो क्यूँ किया
पर उसे कसाब, भगत सिंह को 
वह जो गुजरांवाला पाकिस्तान में जन्मा था 
उसे सब पता था 
जैसे इतिहास की कच्छप गति 
कब खरगोश की तरह हो जाती है 
और किस तरह वह एक गहरे गढ्ढे में गिर जाता है 
इसलिए कसाब भगत सिंह 
एक कठिन चुनौती था 
उसे मारा ब्रिटिश हुकूमत ने यूँ ही मुंह चुराकर 
जैसे नवम्बर की एक सुबह 
कुहासे का भेद छटने से पहले ही तुम्हें
फांसी पर लटका दिया 


पर तुम कसाब 
कोई फलसफाई इंकलाबी तो थे नहीं 
कार्गो पहने और क्लाशिनिकोव से अंधाधुंध गोलियां बरसाते 
तुम किसी विडियो-गेम के मूर्तिमना पात्र जैसे मालूम हुए थे 
और फिर ये मीडिया वाले तो तुम्हें 
आतंकी का भी ओहदा नहीं देते कसाब 
वे तो तुम्हे बंदूकधारी या 'गनमैन' बुलाते हैं 
तुम तो शायद बिना जाने ही मर गए 
की तुमने क्या किया 
और खुदा जाने जन्नत का एक पाक परिंदा बनने का 
तुम्हारा सपना पूरा हुआ भी या नहीं 
पर हम बहुत अच्छे से जानते हैं की तुमसे हमें क्या मिला 
तुमने हमें अमेरिकी 9/11 की तर्ज़ पर 
अपना, खालिस अपना 26/11 देकर 
घटनाओं की दुनिया में स्वराज दिया कसाब 
शायद इसीलिए तुम्हे गाँधी के जेल यरवदा ले गए थे ...


तुम शायद "एक्स " थे कसाब 
जिसे गणित में सवाल हल करने के लिए फ़र्ज़ कर लेते हैं 
तुमसे भी तो हल किये गए कई सवाल 
जैसे की चुस्त ही हुआ राष्ट्र का समीकरण,
धर्मं के प्रमेय सिद्ध हुए,
सत्ता की खंडित ज्यामिति ने अपनी सममिति पा ली 
इसीलिए शायद तुम्हें ठिकाने लगाने की योजना को 
नाम दिया गया "ऑपरेशन एक्स " ....
कसाब फरीदकोट की धरती एक्स ही जनती है 
और तुम जानते नहीं की तीसरी दुनिया में कितने फरीदकोट हैं
धरती के चेहरे पर चकत्तों की तरह उभरे हुए 
कसाब तुम्हारी मौत 
कोई अंत नहीं, एक्स जैसे चरों की चरैवेति है ... 


तुम तो मर गए कसाब 
पर हमारे लिए कई सवाल पैदा कर गए हो 
जैसे अगर विश्व के सबसे शक्तिशाली लोकतंत्र का राष्ट्रपति 
13 साल की उम्र में घरबदर हो गया होता 
तो उसका क्या होता ? 
क्या तब भी उसे नोबेल का शांति पुरस्कार मिलता?
जिसे सर पर पहन कर वह यूँ ही गाजा पर हमले की ताईद करता ?
जैसे वह पाकिस्तान में दरगाहें क्यूँ गिरा रहे हैं कसाब ?
वैसे ही दरगाहें जिनमे घर से बेज़ार होने के बाद 
तुमने कुछ रातें गुजारी थीं 
जैसे चारमीनार से सट कर मंदिर बन गया है कैसे ?
जैसे ये 
जैसे वो 
जैसे ये चिरायंध कैसी है कसाब 
ये धुआं कैसा है ... 
विपिन चौधरी के फंसबुक वॉल से साभार -


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