आधारहीन किसानों का खेती से पलायन ‘मूठमाती’

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आधारहीन किसानों का खेती से पलायन ‘मूठमाती’
                                                      डॉ. विजय शिंदे



प्रस्तावना –
घास-फूस या खपरैल घर। पत्थर और मिट्टी से बनी दीवारें। गोबर से पोता हुआ आंगन। टूटे खपरैल और बिखरी घास से बहती हवा, सूरज की रोशनी। बारिश के दिनों में उन खुली जगहों से भीतर टपकता पानी। चारों तरफ गीलापन। गाय, भैस, बैल, मुर्गियों से आधार पाते किसान। घर के पडोस में ही कहीं खुले में बांधे गए जानवर। या घास से बने-अधबने छप्परों तले की जानवरों की दयनीय स्थिति। जगह-जगह पर हड्डियां ऊपर आई है और अपने-आपको ढो रहे हैं ऐसे दृश्य। वैसे ही उनका मालिक किसान और उसका परिवार किस्मत का मारा। फटे-पूराने मैले कपडे। एडियां फटी, गर्मी से झुलसा चेहरा, हाथों की चमडी सालों पहले बचपन में नरमाई भूल चुकी हो। कुदाल-फावडे उठाकर, मिट्टी-पत्थरों में काम करते पत्थर-मिट्टी जैसा बना उसका जीवन। किसान की पत्नी भी वैसे ही। सुबह पांच बजे काम की शुरूवात और देर रात तक खेत और चूल्हे-चौके में जान खपा रही है। धुएं से आंखें लाल। रोज वहीं दिन और वहीं रात, खपते रहो। किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं, आराम नहीं। सालों से यहीं जिंदगी किसानों के हिस्से आई है। हां अगर फर्क पडा भी है तो खेती लायक जमीनों के आकार में। दिनों दिन बती आबादी के कारण बंटवारे दर बंटवारे खेती के आकार छोटे और बांध बते जा रहे हैं। हर रोज मृत्यु के नजदीक पहुंचने वाला किसान जिंदा रहने के लिए संघर्ष कर रहा है। और बार-बार सोच रहा है कि खेती के आधार पर जीना मुश्किल हो रहा है तो इसे छोडा क्यों न जाए?

किसानों की मानसिकता बदल रही है और खेती से अपनी पीढी नहीं पर अगली पीढी दूर रहे, कमाई का कोई और जरिया ढूंढे की मानसिकता बना बैठे हैं। हजारों मुश्किलों, असुरक्षितताएं, आह्वानों, से किसानों का जीवन आधाहीन होकर टूटने की कगार पर है। भीमराव वाघचौरे द्वारा लिखित ‘मूठमाती’ मराठी कहानी संग्रह के माध्यम से किसानों की जिंदगी और उसके पारिवारिक दुर्दशा का चित्र हमारे सम्मुख खडा होता है और खेती के भविष्य पर भी प्रश्नचिह्न लगा देता है। किसानों के परिवार में केवल मनुष्य ही सदस्य होते हैं ऐसी बात नहीं, जानवर भी उसके पारिवारिक सदस्य होते हैं। उनके साथ जुड़कर सुख-दुख बांटते-बांटते किसान अपनी जिंदगी मजबूरी में जी रहा है। ‘मूठमाती’ में दस लंबी कहानियां हैं और प्रत्येक कहानी में बैल नायक है और किसानों के परिवार का आधारस्तंभ भी। पर परिस्थिति के सामने मजबूर किसान बैल विहीन (आधारहीन) होकर बिखर जाता है और बना-बनाया संसार काल के थपेडों से तितर-बितर होता है। रोज खून-पसीना एक कर मेहनत करना और दो वक्त की रोटी भी नसीब न होना विड़ंबनापूर्ण है। इतनी मेहनत के बावजूद भी किसानों के हक की रोटी कौन चुराता है? प्रश्न खडा है सबके सामने। रोटी बेलने वाला और सेंकने वाला रोटी का हकदार नहीं; कोई तीसरा ही रोटी चुराकर भाग जाता है। किसान करें तो क्या करे? खेती से पलायन? हिंदी के प्रसिद्ध कवि धुमिल जी इन स्थितियों पर प्रकाश डालते ‘रोटी और संसद’  कविता में बडे व्यंग्यात्मक तरिके से देश, सरकार, प्रशासन व्यवस्था और लोकतांत्रिक व्यवस्था पर प्रश्नों की झडी लगाते हैं –"एक आदमी रोटी बेलता है एक आदमी रोटी खाता है एक तीसरा आदमी भी है जो न रोटी बेलता है, न रोटी खाता है वह सिर्फ रोटी से खेलता है मैं पूछता हूं... ‘यह तीसरा आदमी कौन है?’ मेरे देश की संसद मौन है।"

1. बैल परिवार का सदस्य –
     आम परिवारों में तथा जिनका आधार खेती छो दूसरा है उनके पास बैल नहीं होंगे पर किसान के पास अन्य जानवरों के साथ बैल जरूर होते हैं। अब किसानों की खेतियां छोटी हो रही हैं उनके लिए बैल का पालना-पोसना खेती के खर्चे के साथ तालमेल बैठने नहीं देता। दूसरों के बैलों के आधार पर उसे अपनी खेती करनी प रही है। आधुनिक साधन होने के बावजूद भी खेती के लिए बैल की जरूरत पती है और आधुनिक साधन सबके बस की बात भी नहीं। खेती का लगभग नब्बे फिसदी काम बैलों के भरौसे ही किया जाता है। किसान भी इन बातों को ध्यान में रखकर उसकी अहं भूमिका को सम्मान देते हुए बैलों को अपने परिवार का सदस्य मान लेता है। सुख-दुःख के क्षणों में बैलों की भी हिस्सेदारी होती है। मराठी के प्रसिद्ध कवि, फिल्म गीतकार और मूलतः किसान ना. धों. महानोर प्रस्तावना में लिखते हैं कि "किसानों के श्रम से भी कई गुना ज्यादा खेती का काम बैल ही करते हैं। मां-बाप, पत्नी-बच्चें तथा रिश्तेदारों से जितना प्रेम किसान करता है उतना ही प्रेम वह अपने बैलों से करता है। उसका सुख-दुःख, खाना-पीना किसान बांट लेता है। अनाज रूपी सोना जब घर में प्रवेश कर रहा होता है तब जिसकी मेहनत से कमाया उन बैलों को सज-धजाकर, पूजा कर आभार मानना और ढोल-ताशों के साथ स्वागत-सत्कार, बैलपोला उत्सव के दौरान पुरणपोली का खास उसके लिए बनाना आज भी गांवों और किसान परिवारों में बडी श्रद्धा के साथ होता है।" (पृ. 9) अर्थात् कहने का तात्पर्य है कि किसान बैलों को अपने परिवार का सदस्य मान लेता है और उसे उतना प्रेम भी देता है। कुत्ते, बिल्ली, गाय, भैस, मुर्गियां आदि अन्य प्राणी-पंछी भी किसान के पारिवारिक सदस्य होते हैं। नतीजन वह हमेशा उनके प्रति प्रेम रखता है और उनकी पूजा भी करता है। नागपंचमी के दौरान सांपों की भी पूजा करना प्राणियों के प्रति श्रद्धा होने की बात को ही रेखांकित करता है।

      ‘मूठमाती’ कहानी संग्रह के भीतर पात्र जब तक संभव है तब तक बैलों के आधार पर खेती करते नजर आते हैं। देवमन्या-थयमन्या (मूठमाती), सुकर्‍या-पाकर्‍या (नातं), इंजाण्या-पैंजण्या (परागंदा), परधन्या-राजा (बिनदरदी), अंजिर्‍या–बाकर्‍या (अखेरची सुटका), हरण्या-धिंगाण्या (लळा), शिंगर्‍या-गंभीर्‍या (घात-आघात), पार्‍या (जळीत), वावधन्या, सावकर्‍या और वकिल्या (परतफेड) आदि बैलों का जिक्र, उनका सूक्ष्म वर्णन, उनकी मर्मांतकता, दुःख, पीडा और उपकारों का वर्णन कहानियों में है। कोई इंसान या परिवार का सदस्य नहीं कर सकता उतना काम बैल अपने परिवार के लिए किया करते हैं, किसी भी शिकायत के बिना पेट भरा हो या न हो तो भी। ऐसी स्थिति में बैलों का योगदान नजरंदाज नहीं किया जा सकता और किसान द्वारा उसे अपने परिवार का सदस्य माना जाना भी सही लगता है।

2. श्रद्धा और परदुःखकातरता –
बैल और जानवरों के भीतर भी आत्मा वास करती है। जैसे इंसानों को दुःख, पीडा होती है वैसे ही उन्हें भी होती है मानकर उसकी पीडा और दुःख बांटने का प्रयास किसान हमेशा करता है। अपना खाना-पीना सोचने के पहले वह जानवरों का सोचता है, इसमें उसकी श्रद्धा और कृतज्ञता होती है। किसान परिवारों में बैलों के प्रति यह असाधारण प्रेम और श्रद्धा उपकारों को याद रखने का द्योतक है। केवल बैल ही नहीं तो सारी प्रकृति के साथ उसका यहीं व्यवहार होता है। ना. धों. महानोर लिखते हैं, "मेरी मां खेती में खाना लेकर आती थी, उसमें से रोटी का एक टूकडा गाय के लिए, एक कुत्ते के लिए, एक बिल्ली के लिए, एकाध हिस्सा खेती में काम कर रहे मजदूर के लिए, और चटनी तेल से सनी हुई दो कौर रोटी नीम के पे तले चिटियों को। अगस्त तक खेती में खाने लायक अनाज नहीं है ध्यान में रखकर रोज अंजुली भर अनाज पंछियों के लिए, बचा-खुचा परिवार के लिए, बच्चों के लिए। और सबसे अंत में अपना।" (पृ. 9-10) ऐसा गांवों का श्रद्धापूर्ण जीवन दूसरों की दुःख-पीडा समझने का पाठ पढा देता है। ‘मूठमाती’ कहानी संग्रह के प्रत्येक कहानी में एक बैल के साथ हादसा होने की मर्मांतक कथा है। उस बैल की पीडाओं के साथ किसान का जुना और स्वयं पीडा से छटपटाना परदुःखकातरता को दिखाता है। देवमण्या (मूठमाती), सुकर्‍या (नातं), इंजाण्या (परागंदा), परधन्या (बिनदरदी), अंजिर्‍या (अखेरची सुटका), हरण्या (लळा), शिंगर्‍या (घात-आघात), पार्‍या (जळित) और वावधन्या (परतफेड) आदि बैल मानवीय भावों के साथ कहानी में उभरते हैं और दिल में हड़कंप मचाते हुए आंखों में पानी खडा करते हैं। उनके साथ हुए हादसों से निर्मित पीडा किसान के साथ हम भी महसूस कर लेते हैं। उनका भी जीव है, हमें जैसी वेदनाएं होती है वैसे ही उन्हें भी होती है मानकर उनके दुःख बांटने का किसान का प्रयास श्रद्धा और परदुःखकातरता से भरा है। कभी-कभार मुश्किल घडियों में बैल को बेचना पड़ता है तब बैल को अच्छे घर में पहुंचाने का किसान का प्रयास और कसाई से बैल को दूर रखने की उसकी कोशिशें इंसानीयत को लेकर आती है। ‘अखेरची सुटका’ कहानी में अंजिर्‍या नामक बैल की गिरकर कमर टूट जाती है, उठना मुश्किल होता है तब रास्ते के किनारे पडे गर्मी से बेहाल अंजिर्‍या को बचाने के लिए बाळाप्पा का उसी जगह पर लकडियों के आधार से छप्पर बनाना (पृ. 62) परदुःखकातरता का जीता-जागता उदाहरण है। मानवीयता से भरपूर बाळाप्पा अपने बेटे को हर तरह से रोकने का प्रयास करता है कि मृत्युशैया पर पडे बैल को कसाई को न बेचे। बाळाप्पा की पीडा, चिल्लाहट, थरथराहट, आक्रोश और अंततः बेसुध होकर गिर पड़ना कत्तलखानों में कसाई द्वारा कटवाए जानेवाले बैलौं की पीडा महसूस करना ही है। बैल बेचना जब पड़ता है तब खरिदने वाले से कहना कि आप इसके साथ जो चाहे व्यवहार करें पर कभी ‘कसाई को मत बेचे’ का भाव प्रत्येक किसान की श्रद्धा को ही व्यक्त करता है।

3. मजबूरी, कर्जा और बिक्री –
किसान के पास कमाई का साधन खेती के भीतर से उपजी फसल में से थोडा-बहुत बेचना ही है। बडे खेत वाले किसान को छोडे तो साधारण और छोटी खेती वाले किसानों की स्थिति अत्यंत दयनीय है। थोडे से पैसों के लिए बहुत बडा हिस्सा, मूल्यवान चीज बेचने के अलावा दूसरा उपाय ही नहीं रहता। हमेशा मजबूरी और कर्जतले उनकी जिंदगी दबी रहती है। हजार दो हजार रुपए एक साथ देखना उनके नसीब में कभी-कभार ही होता है। ऐसी स्थिति में खेती के भीतर के काम, बीज, खाद, बच्चों की पढाई, औजार, कपडे, बच्चों की शादी आदि कर्ज के बलबूते ही किया जाता है और थोडे कर्ज के बदले उन्हें लूटा भी जाता है। ‘मूठमाती’ के प्रत्येक कहानी में सूखे से पीडित किसान परिवार का वर्णन आया है। ऐसी स्थिति महाराष्ट्र के प्रत्येक किसान की है। सात-आठ साल हो गए कि सूखे की स्थिति पैदा होती है और बिना ठोस उपाय के सरकारी अनास्था के चलते किसानों की कमर टूट जाती है। साहूकारों से एवं बैंकों से उठाए कर्जे को चुकाते-चुकाते जान गले तक आ जाती है। बैल, बैलगाडी, औजार, खेत बेचने की नौबत आ जाती है और इसे बेचकर भी कर्ज बाकी रहता है तब गले में फंदा लटकाकर मृत्यु को नजदीक करता किसान कोई नई बात नहीं। किसानों की आत्महत्याएं आम बात हो गई है और उसकी मृत्यु पर सरकारी तंत्र अफसोस जताने के अलावा और कुछ करना भी नहीं चाहता। खेती में करने लायक कुछ बचता नहीं, हाथ ठहर जाते हैं तो किसान अपने जानवरों की रस्सियों को खुला छोकर खुद परिवार के साथ कहीं जिंदा रहने के लिए गांव-घर छोकर निकल पता है। कहानियों के भीतर ऐसे दृश्य बार-बार वर्णित होते हैं, जो किसानों की मजबूरी का बखान करते हैं। रुपए-पैसों के अभाव में दुकानदारों से हमेशा उधारी पर किराना एवं अन्य जरूरी चीजें खरिदनी पती हैं। पर दुर्भाग्य से कहे या लूट से दुकानदारों की उधारी कभी खत्म ही नहीं होती। हनुमान के पूंछ के समान वह बती ही जाती है। "मारवाडी दुकानदारों का खाता खेती में उगने वाले घास जैसे बिना हिसाब बते जाता है।" (पृ. 22) नाना द्वारा कहा जाना लूट और छोटेसे कर्ज का बोझ हो रहा है बता देता है। चारों तरफ से घिरा नाना आखिरकार दो में से एक बैल सुखर्‍या की बिक्री करने के लिए मजबूर होता है। उसके घर की अत्यंत मूल्यवान चीज बैल आखिर में बेचना खेती का रूक जाना बता देती है। सूखे की भयान परिस्थिति में घर के जानवर, खेती उपयोगी औजार, बर्तन और जमीन भी बेची जाती है। (पृ. 34) फिर भी खाने के लिए थोडा अनाज नहीं मिल रहा है यह वर्णन संपूर्ण भारतीय किसानों की दयनीय, मजबूर स्थिति को दर्शाता है। जिंदगी में ऐसे अनेक हादसे एकाएक आ जाते हैं बैठा-बिठाया सारा खेती का संसार ध्वस्त होता है। जहां हरियाली, दूध, पानी, अनाज की बरसात होती है वहां खाने के लाले प जाते हैं। दिन बदलते हैं और मजबूर किसान रास्ते पर आ जाता है, उसका घर उज जाता है। (पृ. 38) बसे-बसाए किसानों के घर की अगर यह स्थिति है तो हमेशा जिनका नसीब फूट चुका है, गरीब है और खेती योग्य जमीन बहुत थोडी है उनकी कल्पना भी नहीं की जा सकती है।

4. सुख-शांति का अभाव –
     गरीबी सबसे बडा दुश्मन होती है और उसके चलते घर का सुख, चैन और शांति नष्ट होती है। एक दूसरे के प्रति अविश्वास, संदेह और शंकाएं निर्माण होने लगती हैं। छोटी बात का भी बतंग बन जाता है और झगडे की स्थिति पैदा होती है। सांस-बहू, पिता-पुत्र, भाई-भाई... के बीच अर्थाभाव के कारण संघर्ष निर्माण होता है। ‘मूठमाती’ के भीतर कुछ अंशों में इसका सूक्ष्म वर्णन आया है। ‘नातं’ और ‘अखेरची सूटका’ कहानियों में इसकी झलक मिलती है। "हां-हां! मुझे कुछ समझ में ही नहीं आता? ऐसे ही मेरे बाल धूप में सफेद नहीं हो गए हैं? तुम्हारी बात मैं समझती हूं।" (पृ. 22) सांस का बहू के लिए कहना और छोटी बात का झगडे में रूपांतर होना अर्थाभाव से शांति का नष्ट होना बताता है। अंजिर्‍या बैल के हादसे में आप्पा और उसके बेटे का नियंत्रण खोना भी यहीं बता देता है।

5. नियोजन अभाव –
      किसानों की जिंदगी भगवान भरौसे होती है। खेती, पैसा, बच्चे, बच्चों की पढाई, पानी, अनाज, बीज, साधन-संपत्ति... का नियोजन अभाव हमेशा दिखाई देता है। जब इनके पास होता है तब भरपूर होता है, जब नहीं तब जो मूल धन है उसे बेच-बाचकर खाएंगे। जितनी कमाई हो चुकी है उसमें से थोडा हिस्सा भविष्य के लिए बचाए रखना उसकी फितरत में नहीं होता है। बचत मानो उसका दुश्मन होती है। बचत के प्रति अनास्था इसे हजारों मुश्किलों में डालती है। अगर वह इस दृष्टि से जागृत हो जाए तो कर्जों के फंदे से अपने-आपको बचा सकता है। ‘उतना ही पैर फैलाए जितनी लंबी अपनी चादर हो’ यह कहावत उसके पास है परंतु उस पर अमल नहीं। ‘परागंदा’ और ‘अखेरची सुटका’ कहानी में जो परिस्थिति किसान के हिस्से आई है उसमें नियोजन अभाव भी कारण है। परिवार नियोजन का अभाव उसकी कमर तो देता है और बता परिवार भविष्य में उसे बोझ लगने लगता है। बारिश पर निर्भर खेती बारिश के अभाव में सूख जाती है। घर-परिवार ध्वस्त हो जाता है ऐसी स्थिति के लिए इसके पास बचाया निधि नहीं होता है। छोटी बीमारियों के लिए उसके पास सुरक्षा रकम होती नहीं है, न अपने लिए और न जानवरों के लिए। इसलिए छोटी बीमारियों में तीस-तीस, चालिस-चालिस हजार के जानवरों से हाथ धोना पता है। थोडी-सी समय-सूचकता थोडा-सा नियोजन किसानों की गाडी पटरी पर रख सकता है। अतः बेफिक्री और नियोजन अभाव उनकी जान और पशुधन का दुश्मन बनता है। यह बातें कहानियों को लेकर प्रसंगवश आई है पर प्राकृतिक परिवर्तन, पानी अभाव, सूखा, बेमौसमी बारिश, तूफान... आदि संकटों से बचना है तो नियोजन तो करना ही पडेगा। सरकार की तरफ आस लगाए बैठना और भीख मांगना असम्मानजनक है। सरकारी मदत अगर मिली भी तो सब लूटने के बाद मिलती है। उसका कोई फायदा नहीं; अतः समय रहते चेतित होना, उचित कदम उठाना, निर्णय लेना और नियोजन करना किसानों को बचा सकता है और सम्मानजनक जिंदगी भी दे सकता है।



6. नई पीढी और खेत –
     किसान अपने बच्चों को खेती में डालना नहीं चाहता। उसकी जिंदगी मिट्टी, गाय, भैस, बैल, गोबर, कीच से सनी है और जगह-जगह पर हुए अपमानों से लथपथ है। दलालों से लूटी परास्त हो चुकी है। अतः वह ऐसी जिंदगी का सपना अपने बच्चों के लिए कभी देखना नहीं चाहता। आज गांवों में नवीन पीढी के भीतर खेती के प्रति अनास्था, शहरों के प्रति लगाव, किसानी का नकार उसी के फलस्वरूप है। गांव उज रहे हैं और युवा पीढी  शहर की ओर भाग रही है। उन्हें उनके परिवार वाले भी रोकते नहीं, उनकी रजामंदी के तहत यह चल रहा है। परंपरागत धंधे और खेती टूटने की कगार पर है और किसानों के बच्चे पढ़-लिखकर अच्छी जगह पर पहुंच रहे हैं। अच्छे ओहदों पर नियुक्त युवक वर्तमान में गांव के लिए आदर्श होते हैं। कारण साल दो साल में उसकी और उसके परिवार की स्थितियां ही बदलती है। खेती पर की निर्भरता खत्म होती है और नौकरी से कमाया पैसा उसका आधार होती है। कुछ साल पहले बैल और खेती परिवार का आधार थी पर आज पढा-लिखा बेटा-बेटी आधार बनती है। सफेद रंगीन कपडे, काले चष्मे, गोरे चेहरे, साफ-सूथरे बाल, साफ-सूथरी बी॓वी और साफसूथरी चमकती गाडी जब गांव पहुंचती है तब सारा गांव कौतुहल से देखता है। उसकी देखा-देखी नई पीढी उन्हीं रास्तों पर चलती है। ग्रामीण माता-पिता बच्चों को डॉक्टर, इंजिनिअर, प्रोफसर, मास्टर... होते देखना चाहते हैं और बच्चे भी अपनी आंखों में यहीं सपना लेकर बडे होते हैं, हो रहे हैं। इसमें गलत कुछ भी नहीं उन्हें भी पढ़ने-लिखने और नौकरी हासील करने का अधिकार है पर इनका खेती के प्रति अनास्था दिखाना गलत है, खेती इनके लिए मनोरंजन बनती है। सहज हो गई तो ठीक नहीं तो खाली छोडा जाता है। हरियाली के भीतर विरानता और झाड-झंकाड़ भर जाते हैं। यह फिलहाल वर्तमान वास्तव है।

7. अनास्था-बेफिकीरी –
     भारतीय किसान आस्था और बेफिकीरी का शिकार है। कहने के लिए हमारा देश कृषि प्रधान है परंतु खेती करने वाले किसानों के प्रति अनास्था, बेफिकीरी हमेशा कायम है। यहां प्रत्येक व्यक्ति किसानों के प्रति आस्थावान बनने से कोई विशेष फर्क नहीं पडेगा। लेकिन केंद्र और राज्य सरकारें खेती और किसानों के प्रति आस्थावान और फिक्रमंद होंगे तो बहुत कुछ परिवर्तन हो सकते हैं। आज किसानों की लूट हो रही है। उनके द्वारा उत्पादित उत्पादों का कोई मूल्य नहीं। सरकारी अनास्था के कारण दलाल और बिचौलिए किसानों को लूट रहे हैं। दलालों से राजनैयिकों का हिस्सा समय पर उनके पास पहुंच रहा है। विभिन्न पार्टियों के फंड ब रहे हैं। ग्रामसेवकों से शुरू होती महसूल विभाग की संपूर्ण व्यवस्था किसानों को लूटने पर उतारू है। सरकार द्वारा अलाऊट किया गया मदतनिधि हपने का काम भी कृषि विभाग, महसूल विभाग एवं संपूर्ण दलालों के हाथों बेची गई सरकारी व्यवस्था कर रही है। ना. धों महानोर प्रस्तावना में लिखते हैं कि "आजादी के बाद आजकल जो विकास और परिवर्तनवादी कार्यों का डंका पीटा जा रहा है उन्हें सुनकर पीडा होती है और गुस्सा भी आता है।’’ (पृ. 9) पीडा और गुस्से का कारण विकास कार्यों के भीतर का झूठापन, लूट और धंधा ही तो है। ‘बिनदरदी’ कहानी के भीतर डॉक्टर का बैल की बीमारी के बारे में बेफिक्री दिखाना, अमानवीय तरिके से बैल की आंख निकालना (पृ.51) कौनसी आस्था को दिखाता है? बिजली के अभाव में ऊर्जा विभाग का ‘लोडशेडिंग’ नामक फंडा, उसके भीतर का नियोजन अभाव, हरिभरी खेती को सूखा देता है और इसके चलते किसान तड़पते मर रहे हैं। बिजली के खंबे, पॉवर स्टेशन, ग्रामीण इलाके के भीतर उसके तारों का खुला पड़े रहना और उससे आदमी, जानवरों और किसानों का मारे जाना सरकारी तंत्र की बेफिकीरी को दिखाता है। ‘जळीत’ कहानी में जानवरों के छप्पर में लगी आग उसमें जलकर राख हुए प्याज, किसान का खेतीयोग्य सामान और ‘पार्‍या’ नामक बैल की भूनकर आ रही चमडी की गंध ऊर्जा विभाग की लापरवाही को दिखाता है। जली-भूनी चमडी के साथ बैल और उसके मालिक का जिंदा दृश्य दुर्घटना और हादसा मानी जाती है। इसे ऊर्जा विभाग और कर्मचारियों की लापरवाही मानकर किसी का निलंबन नहीं होता, किसी को सजा होती नहीं और नुकसान से पीडित किसान के लिए भुगतान भी नहीं दिया जाता। यह अनास्था और बेफीकीरी नहीं तो और क्या है?

सरकारी अनास्था के चलते किसान भी कहां आस्थावान और फिक्रमंदी के साथ रहना चाहते हैं। शराब, तंबाकु, बिडी, गांजा, गुटका, मटका... जैसी गलत गंदी आदतों से वह अपने आपको, परिवार को और बसे बसाए घरों को दांव पर लगा देते हैं। ‘तळतळाट’ जैसी कहानी में भीमराव वाघचौरे जी ने बैलगाडियों की दौड़ में हुए हादसे का वर्णन किया है। गावों में किसान ऐसी स्पर्धाओं का आयोजन करते हैं पर बेफिक्री से। सुरक्षा अभाव, खराब, गढ्ढे और पत्थरों वाला रास्ता, कोई नियम और कानून नहीं। जानवरों पर अत्याचार तो होता ही है परंतु शराब के नशे में झूमते गाडीवान और अन्य लोग कब गाडी के नीचे आकर जानवरों के साथ अपनी जान गवां बैठते हैं पता भी नहीं चलता। ‘तळतळाट’ कहानी के संपत भुसाड्या का पैर भी ऐसे ही हादसे के फलस्वरूप काटना पडा। यह बेफिकीरी परिवार को भी ले डूबती है। जहां खाने के लाले पड़ते हैं वहां अस्पताल का खर्चा संपूर्ण परिवार की आर्थिक दृष्टि से कमर तोड़ देता है। कहने का तात्पर्य है जब हमारी आस्थाएं और फिक्रमंदी साबुत हो तब सब साबुत रह सकता है।

निष्कर्ष –
      भीमराव वाघचौर द्वारा लिखित ‘मूठमाती’ मराठी कहानी संग्रह है। महाराष्ट्र और मराठवाडे का प्रातिनिधिक चित्रण दस कहानियों में है परंतु संपूर्ण भारत की कृषि व्यवस्था, किसानों का दुःख और पीडा तथा गांवों के भीतर की विविध घटनाओं को समेटने की क्षमता रखता है। मूलतः किसान और अध्यापक रह चुके भीमराव वाघचौर जी गांवों के साथ लगाव रखते हैं, गांवों में रहे हैं और आज भी रह रहे हैं इस कारण बैल और बैलों से जुडी सारी सूक्ष्मताएं कहानियों के भीतर उतरी है। सूखा, कर्जा, भूख, अनास्था, गलत आदतें, अर्थाभाव से पीडित किसानों की जिंदगी के साथ लडी जाने वाली असफल–पराजीत लडाई का वर्णन ‘मूठमाती’ में है। सबकुछ छोड़-छाड़कर मिट्टी करा देना अंत्यविधि होता है। अर्थात् जिंदगी की सारी कमाई को एक छोटसे तूफान में तिलांजली देना पीडा का निर्माण करता है। प्रत्येक कहानी का नायक बैल होना और बैलों को केंद्र में रखकर कहानियां लिखना मराठी साहित्य के लिए नवीन प्रयोग है। कहानियों में प्रयुक्त भाषा ठेठ मराठवाडी ग्रामीण भाषा है। वह सौंदर्य और अर्थबोध भरने में सक्षम है।

      कृषिप्रधान देश के भीतर किसानों की उपेक्षा, अनास्था, अपमानभरी जिंदगी का पीडादायी वर्णन लेखक ने कहानियों के भीतर किया है। वह यह भी संकेत दे रहा है कि समय रहते देशी सत्ता और सरकार अगर जागृत होकर उचित कदम नहीं उठाएंगी तो खेती का नष्ट होना तय है। आठ-दस सालों के बाद बार-बार सूखे से पीडित खेती थोडा-सा उठने की कोशिश कर रही होती है कि फिर स्थिति ढह जाती है। ऐसा चित्र हमारे कृषि प्रधान देश के अस्तित्व के लिए भी खतरा है। अर्थात् पानी, अर्थ और खेती का नियोजन अत्यंत आवश्यक है। खेती का विकास, किसानों की प्रगति गांवों में सुख और शांति ला सकती है। चारों तरफ हरियाली और अनाज से भरापूरा होना गांवों का हक है। ‘मूठमाती’ के माध्यम से भीमराव वाघचौरे जी ने उसी की पुकार लगाई है।

समीक्षा ग्रंथ – मूठमाती ( मराठी कहानी ंग्रह) – भीमराव वाघचौरे,
साक्षात् प्रकाशन, औरंगाबाद, प्रथम आवृत्ति – फरवरी 2012, पृष्ठ 124, ₹ 120

भीमराव वाघचौरे जी का संक्षिप्त परिचय
मराठी के ग्रामीण कथाकार के नाते भीमराव वाघचौरे जी ने अपनी पहचान बनाई है। मराठवाडा शिक्षण प्रसारक मंडल के कै. विनायकराव पाटील महाविद्यलय, वैजापुर में सालों अध्यापक के नाते सेवा करने वाले वाघचौरे जी एक अच्छे किसान भी रहे हैं। स्वभाव से निर्मल, सरल, किसानी गंध वाले वाघचौरे जी साहित्य के भीतर भी वहीं शख्सियत रखते हैं। जो भोगा, पास पडोस में देखा साहित्यिक अभिव्यक्ति का विषय बनाते हैं। ‘अंगारकुस’, ‘गराडा’, ‘रानखळगी’, ’पानघळी’ और ‘मूठमाती’ जैसी सफल और चर्चित कृतियों के निर्माणकर्ता भीमराव वाघचौरे जी भविष्य में और ताकतवर लेखन का दमखम रखते हैं। इनके द्वारा लिखित ‘रा. रं. बोराडे यांचे साहित्य आणि आस्वाद’ नामक समीक्षात्मक ग्रंथ भी मराठी समीक्षाजगत् में मानक रहा है।

डॉ. विजय शिंदे
देवगिरी महाविद्यालय, औरंगाबाद - 431005 (महाराष्ट्र)



editor says



....मूठमाती और बैलों के बहाने भारतीय खेती और किसानी का मूल्यांकन किया है। भारतीय किसानों के वास्तव को जैसे लेखक ने सामने रखा है उसका उचित मूल्यांकन समीक्षा में करने की कोशिश रही है। शुरूआत के पाठक और आपको समीक्षा पसंद आएगी।

9 टिप्‍पणियां:

  1. उत्तर
    1. मनमोहन जी केवल एक वाक्य हौसला बुलंद करने के लिए काफी है। समीक्षा लंबी है और पढने के लिए समय लगता है, मुझे पता है पर लिखना जरूरी है इसलिए लिखा।

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  2. बहुत ही बारीकी से समीक्षा की गई है ....वास्तविकता तो यही है की किसान को न तो जलवायु का सहारा मिल रहा है न ही सरकार का ....

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    1. ji ha nisha ji....
      aap shuruaat par aaye or aapne ye important comment kiya aapka shukriya
      or aap bhi apne vichar bhej sakte ho humko kafi khushi hogi

      हटाएं
    2. जिसके आधार से जी रहे हैं वहीं सबकी मार खा रहा है। डॉ. निशा जी और मनमोहन जी आभार 'मूठमाती' के माध्यम से सार्थक चर्चा हो रही है। दुनिया बदले या न बदले पर हमारा मन तो साफ है। मिट्टी में जन्मे और मिट्टी का कर्ज अदा करने में कोई कसर नहीं। मेरे ब्लॉग पर 'नम्र निवेदन' के माध्यम से मैंने आप तक पहुंचने में असमर्थता के कारण बताए पर अपनी मिट्टी के साथ जुडकर सकून भी महसूस किया। एक महिने की लंबी छुट्टियां, गांवों की हवा, मिट्टी चमडी का रंग बदल देती है पर मन में एक अद्भुत ताकत भर देती है जिसके माध्यम से अगले छः मिने काटे जा सकते है। फोन और बाहरी दुनिया के संपर्क को कटवाकर माता-पिता के साथ गांव, घर, खेती में समय गुजारना आत्मा को शांति देता है। पर 'मूठमाती'में किसान परिवार, किसान जैसे अपने बेटों को खेती से दूर रखना चाहते हैं वैसे ही मेरा है और मेरे जैसे हजारों युवकों का भी।

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  3. अत्यंत प्रभावी एवं सूक्ष्म समीक्षा किया है आपने . पुस्तक का मर्म पढने के साथ ही आत्मसात हुआ जाता है . साथ ही सोचने को विवश भी करता जाता है ..किसानों को.. लेखक को शुभकामनाएं और आपका आभार हम तक पहुचाने के लिए.

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    1. मेरी कोशिश सफल मानी जा सकती है आपकी टिप्पणी पढकर अमरिता जी। कारण 'मूठमाती' मराठी रचना है आप तक पहुंच नहीं सकती थी, हिंदी समीक्षा के माध्यम से आप पाठकों तक पहुंची और मुझे भी दोहरा सुख मिल रहा है। मूलतः मातृभाषा मराठी का और राष्ट्रभाषा-राजभाषा हिंदी का सेवा करने का।

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  4. vijay ji aapki koshish ne is stya ko hi nahi balki shuruaat ko bhi safalta di h quki
    aapki shandaar rachnaye hamara manobal badhati h
    varna aajkal lekhakh kanha likhte h choti megzino me

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  5. मनमोहन कासना जी आप काम ईमानदारी से कर रहे हैं। हिंदी साहित्य की सेवा और भाषाई ईमानदारी आपको सफलता देगी। पत्रिका छोटी-मोटी का प्रश्न है नहीं ऑनलाईन सारी दुनिया के लिए उपलब्ध है। इससे क्षेत्र व्यापक है। आपकी मेहनत रंग लाएगी। दिनोंदिन विकास होगा। और हमारा मिलना भी जारी रहेगा।

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