मुक्तिपर्व में शिक्षा, संघर्ष एवं संगठन = दलित विमर्श पर आलेख

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डॉ.सुनील जाधव,नांदेड ,महाराष्ट्र ,                           ब्लॉग -नवसाहित्यकार                          
                                   मुक्तिपर्व में शिक्षा, संघर्ष एवं संगठन
         दलित कई सौ सालों से समाज की विपरीत व्यवस्था का शिकार होता आ रहा था | जिस वर्ण व्यवस्था की स्थापना समाज को सुचारू रूप से चलाने के लिए की गई थी ,वही व्यवस्था कब जाति में और जाति से उपेक्षा, घृणा, द्वेष, अछुतपन आदि में परिवर्तित हो गई पता ही नही चला था | एक समाज सवर्णों, क्षत्रियों, वैश्यों  का था तो दूसरा समाज उपेक्षितों, पीड़ितों, अछुतों, दलितों का था | समाज में घोर विषमता व्याप्त थी | पहले वर्ग के पास सारी सुख सुविधाएँ थी | वे पढ़े लिखे थे | उन्हें समाज में मान सम्मान का दर्जा था | वहीं दूसरा समाज दुःख, निराशा, दरिद्रता, अभावों के गर्त में पड़ा हुआ था | वे अक्षर ज्ञान से कोसो दूर थे | उन्हें जान बुझकर अक्षर ज्ञान से दूर रखा गया था | वे नवाबों, जमीदारों, काश्तकारों, सवर्णों के अन्याय-अत्याचार के शिकार थे | वे गुलाम तो न थे | पर इस वर्ग के लिए वे पर्मनंट गुलाम ही थे | उनका प्रत्येक क्षेत्र में शोषण हो रहा था | समाज में उनका स्थान जानवरों से भी बदत्तर था | वे मानो मुर्दा ही थे |
          यदि दलित समाज को उस गर्त से बाहर आना है तो उन्हें शिक्षा के सीडी के सहारे ही उपर आया जा सकता था | उपन्यासकार मोहनदास नैमिशराय जी पर आर्य समाज तथा डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर जी के प्रगतिशील विचारों के प्रभाव  का दर्शन उपन्यास में होता है | शिक्षा से ही समाज का विकास हो सकता है | समाज में सुधार, जागरूकता लायी जा सकती है | हजारों सालों से उपेक्षित, अन्याय, अत्याचार, गुलामी, दरिद्रता के जंजीर से मुक्ति केवल शिक्षा से ही प्राप्त हो सकती है | इसीलिए उन्हें इस पथ पर विपरीत बाधक स्थितियों का सामना करते, संघर्ष करते आगे बढना है | दलितों ने पहले वर्ग के कारण आत्मविश्वास खो दिया था | शिक्षा से ही उनमें आत्मविश्वास जागेगा | उपन्यास के आवरण पृष्ठ पर लिखा है, ‘’ शिक्षा के माध्यम से समस्याओं को हल करने का प्रयास किया गया है | जो बाबा साहेब डॉ.आंबेडकर का गुलामी से मुक्ति हेतु मूलमंत्र भी है |’’ १
          उपन्यास में ढेढ़ चमार बंसी के परिवार को आधार बनाकर गुलामी, शिक्षा, संघर्ष, विषमता, आत्मविश्वास का चित्रण किया है | आजादी के बाद आर्य समाजी रामलाल और चमार टोले के प्रयास से स्कूल की मान्यता प्राप्त होती है | अक्षर ज्ञान से रहित दलितों की बस्ती  ‘चमार टोला’ में लोग प्रसन्न होते है | उनके ख़ुशी का कोई ठिकाना नही रहता | वे सोचते है कि ,’’ उनका मन भीतर-बाहर से प्रफुल्लित था | यह सोचकर कि वे नहीं पढ़ पाए चलों उनके बच्चे तो पढ़ लिख जाएंगे | वे सभी अंगूठा छाप थे | पढने-लिखने का उन्हें अवसर ही नहीं मिला था | कदम-कदम पर जाति  के आधार पर लगाई गई बंदिशे सामने आती थी | सामने ही क्यों चारों तरफ से वह पीछा करती थी | वे मूक थे, जानवर की तरह ठेला जाने वाला रेवड़ बना दिया गया था उन्हें |’’ २ रामलाल के  प्रयत्नों से स्कूल का बजट पास तो हुआ था | पर दलितों की बस्ती में दलितों के बच्चों को पढ़ाने के लिए कोई तैयार ही नही होता | क्योंकि जितने भी अध्यापक थे वे सभी सवर्ण जाति से थे | दलितों का कोई भी अध्यापक नहीं था | उन्हें पढने-लिखने की अनुमति थी ही नही तो कहाँ से दलित समाज में अध्यापक बन पाते | उपन्यासकार इस सच्चाई को अभिव्यक्त करते हुए कहते है, ‘’ रामलाल, जो आर्य समाजी थे, ने बतलाया | स्कूल का पूरा बजट पास हो गया है | सभी कुछ तैयार है, बस देर इस बात की है कि कोई भी अध्यापक बस्ती में पढ़ाने को तैयार नहीं होता | वे सभी अध्यापक सवर्ण थे |’’ ३  
          रामलाल के अथक परिश्रम क कारण एक साल के बाद स्कूल खुलवाने में कामयाब हो जाता है | कलालखाने की खाली पड़ी ईमारत में स्कूल शुरू किया जाता है | अध्यापक भी मिल जाता है | बस्ती में ख़ुशी का माहोल बन जाता है | सबसे अधिक आनंद सुनीत के पिता को होता है | ‘’ म्हारा सुनीत स्कूल जा रिया है |’’ ४ लगभग एक साल की  भागदौड के बाद रामलाल स्कूल खुलवाने में सफल हो ही गए थे | बस्ती में ही कलाल खाने की ईमारत खाली पड़ी थी | जहाँ पहले लोग शराब पीने आते थे | अब वहाँ बच्चे पढ़ा करगें | खूब अच्छी तरह से सफाई की गई थी | उन्हें ख़ुशी थी कि उनके बच्चे अब पढ़ा करेगें | कुछ ही दिनों में एक मास्टर की व्यवस्था भी हो गई | समूची बस्ती में ख़ुशी का अजिंबोगारिब आलम था | ‘’ ५
            स्कूल में बस्ती में सभी बच्चे भारी तादात में आने से स्कूल खचा-खच भर तो गया था | पर अधिक दिनों तक ऐसा माहोल न रह पाया था | संख्या घटने लगी थी | क्योंकि बस्ती में बच्चों के माँ-बाप मजदूरी आदि करते थे | बच्चे उनका हाथ बांटते थे | पढना और काम भी करना उनके लिए अवश्य था | ‘’ कोई माँ के साथ चिल्हा-चिल्हा कर गाजर, आलू, प्याज  बेचता था तो कोई फल-फूल | उनके अलग-अलग धंधे थे, जिनमें वे लगे थे | कुछ बच्चे मजदूरी भी करते थे | राम दुलारे के बेटे की कद काठी घोड़े की तरह थी | पर उसके सिर पर बोझ रख-रख कर उन्होंने उसे घोड़े से गधा बना दिया था | कलवा की  औरत कलवी के साथ उसके बेटे फुक्कन को सुबह आढत पर सब्जी खरीदने जाना पड़ता था | और सुमरती की लड़की गँगा को पास ही बाजार के नुक्कड़ पर सुर्खी-बिंदी की दुकान पर बैठना पड़ता था | दल्लू के बेटे नटवा को रिक्सा-साईकिल की दूकान पर जाना पड़ता था | वह पंचर लगाने में मदद करता था | ‘’ ६
        स्कूल में जाति से कायस्थ मास्टर स्कूल में संख्या बढाने के नाना तरकीबे अपनाते है | गोलियाँ बाटना आदि जब सारे संभव प्रयास करने के बावजूद भी छात्र स्कूल नही आते तब मास्टर उनके नाम स्कूल के रजिस्टर से कम कर देता है | इसके परिणाम स्वरूप बस्तीवाले रामलाल के पास शिकायत करते है | इस पर रामलाल मास्टर को बुलाकर समझाता है ,’’ इस बस्ती के बच्चे पढ़ नहीं पायेंगे और हमारी बरसों की मेहनत पर पानी फिर जाएगा | उनकी स्थिति को समझो | वे गरीब है | बच्चे रोजगार और काम धंधो में अपने माता-पिताओं की मदद करते है | हमे ऐसे बच्चों की मदद करनी चाहिए |’’ ७  मास्टर रामलाल की बात समझ जाता है | बस्ती के बच्चों को पढाना है | पर एक के बाद एक कई समस्याओं, संकटों का सामना करना पड़ता है | शिक्षा के आड़े सवर्ण समाज तो था ही साथ में उनका दरिद्र जीवन भी आड़े आ रहा था |
             सुनीत बस्ती के नूतन प्राइमरी स्कूल में पढ़ते-पढ़ते बस्ती के बच्चों को जो स्कूल नही जा सकते थे , उन्हें पढ़ाने लगा था | शिक्षा के कारण उसमें जिज्ञासा, विद्रोह के भाव जागने लगे थे | उसने अपने पिता द्वारा दी हुई बाबा साहेब की किताब पढ़ी थी | स्कूल में जाते रहने से उसमें प्रोढ़ता उछाल मार रही थी | किताब में छपे चित्र और समाज की सच्चाई में विरोधाभास था | पाठ्यक्रम के एक चित्र में जब वह विरोधाभास  देखता है, तब वह इस बात का विरोध करता है | वह आध्यापक को कहता है ,’’ यह चित्र झूठा है |’’ ८ समाज और शिक्षा के क्षेत्र में व्याप्त विरोधाभास को अभिव्यक्त करते हुए मोहनदास नैमिशराय कहते है,’’ किताब में तो ऐसा चित्र नही था | प्याऊ पर बैठा आदमी भी वैसा ही था | माथे पर तिलक भी किताब दिए गए तिलक जैसा और गले में जनेऊ तथा सिर के बीचो-बीच चोटी भी वैसी ही, मूँछे भी लगभग वैसी ही, कंधे पर गमछा भी, सफेद बनियान और धोती भी | सब कुछ तो वैसा ही था, पर पानी के लोटे के साथ नलकी न थी | किताब में नलकी क्यों नहीं | मास्टर जी के झूठ बोलते है, किसने लिखी यह किताब, किसने बनाये यह अधूरे चित्र |’’ ९  सुनीत और उसके पिता बंसी तथा बस्ती के लोग तो हमेशा नलकी से ही पानी पीते है, पर चित्र में कुछ और दिया गया था | सुनीत के मन में व्यवस्था की विषमता के प्रति विद्रोह जन्म लेता है | वह अध्यापक, छात्र तथा बस्ती के कुछ लोगों का संगठन बनाकर प्याऊ पर जाता है | और पंडित जी को नलकी से नही बल्कि सवर्णों के भांति सागर से पानी पिलानें की बात करता है | सुनीत और बस्ती के लोगों के संगठन की आक्रमकता को देख पंडित उनसे माफी मागते हुए पानी सागर से पिलाता है |  इसी सच्चाई को व्यक्त करते हुए उपन्यासकार कहते है, ‘’ अबतक प्याऊ के आस पास भीड़ इकट्ठा हो गई थी | उन सब की समझ में भीड़ होने का कारण समझ आ गया था | चारों तरफ से आवाजे आने लगी थी | उन आवाजो में सामाजिक विषमता के खिलाफ जूझने का आव्हान था | पीछे से पुलिस कर्मी भी आ गये थे | पंडित जी ने लाल पगड़ी वाले दो-तीन पुलिसवालों को देखा तो उसका गुस्सा काफूर हो गया | बच्चों ने इस शर्त पर पानी पिया कि पंडित जी सभी के सामने कान पकड़कर माफी माँगे और आगे से सभी को एक ही बर्तन में पानी पीलाने का विश्वाश दें | पंडित जी ने मजबूर होकर वैसा ही किया | सभी ने ख़ुशी-ख़ुशी पानी पिया |’’ १०
          बस्ती में पाँचवी की बोर्ड परीक्षा चार बच्चों ने पास की थी | बाला, सुनीत, राजू, मंगत | सुनीत ने पाँच सौ में से चार सौ पचास अंक लिए थे | उसके परिश्रम और लगन से तथा अपने समाज को विषमता की खाई से बाहर निकालने के लिए खूब मन लगाकर पढ़ाई की थी | जिसका ही परिणाम था कि वह अधिक अंक लेकर पास हुआ था | यह ख़ुशी और सफलता शिक्षा से बस्तीवाले को मिली थी | पर अगला सफर इतना आसान नही था | सुनीत को उपेक्षा, अपमान को सहना था | पाँचवी के बाद उसका एडमिशन बनिया पाड़ा नामक बस्ती के ज्युनियर हाईस्कूल में हुआ था | यहाँ का पांडे मास्टर सुनीत को,’’ चमारों के स्कूल आए हो यही ना |’’ ११ वह सुनीत के अंकपत्र को आंखे फाड़-फाड़ कर उंगलियों के सहारे देखता है | खुश होने की बजाये दुखी होता है कि एक दलित सवर्ण से अधिक अंक ले ..| वह एडमिशन तो करता है | पर बंसी की दरिद्रता का मजाक भी उड़ाता है , ‘’ यहाँ स्कूल में समय से आना पड़ेगा | स्कूल की ख़ास वर्दी है, उसी को पहन कर आना पड़ेगा | कोई भी गंदे-सन्दे, फटे-पुराने कपडे स्कूल में नही चलेंगे | आखिर यह स्कूल अनाथालय नही |’’ १२  यहाँ तक तो ठीक था | पर स्कूल में सुनीत को ढेढ़ चमार होने का खामियाजा भुगतना ही था | उसे स्कूल में कोई बात नही करता है | उसका पग-पग पर अपमान तथा मजाक उड़ाया  जाता है | वह मानसिक संघर्ष करता है | सुमित्रा उसे इस उपेक्षा के अपमान से हुए दुःख से उभारने का कार्य करती है | ‘’ नही, सुनीत ऐसा नहीं है | कोई भी व्यक्ति जाति से छोटा बड़ा नहीं होता | वह तो अपने कर्मो से छोटा-बड़ा होता है |’’ १३
         सुनीत का आदर्श अब डॉ.बाबा साहेब आंबेडकर बन गये थे | वह उनी की भांति रात और दिन पढ़ाई करता था | ‘’ उनके कच्चे घर में लाईट कनेक्शन न था, केवल मिटटी के तेल से जलनेवाली डिबरी थी | वह भी कभी-कभी जल नही पाती थी | इसीलिए की तेल के डिपो पर मिटटी का तेल मिल नही पता था | जिस दिन घर में अँधेरा होता उस दिन सुनीत बाहर गली के किनारे पर लगे लैप पोस्ट के उजाले में पड़ता था | वह वहीं खड़े होकर पड़ता और जब थक जाता तो नीचे जमीन पर बैठ जाता ‘’ १४  बंसी जब सुनीत को रात-दिन पढ़ता देखता है , तब उसे सुनीत के आँखे खराब होने का भी डर लगता है | जब भी बंसी सुनीत को पढ़ते समय टोकता तब सुनीत कहता,’’ पिता जी आपने ही तो बताया था बाबा साहेब डॉ.आंबेडकर खूब पढ़ते-लिखते थे | उनके घर बिजली न थी, पर वे बाहर लैम्पोस्ट के उजाले में पढ़ते थे |’’ १५  सुनीत अपनी जाति को ऊँचा उठाने, मान सम्मान दिलाने के लिए मेहनत कर रहा था | उसने बचपन में आंबेडकर की कहानी पढ़ी थी | जब वे गरीबी में पढ़कर समाज का सर ऊँचा कर सकते है | वह क्यों नहीं | उन्होंने ही गुलामी से छुटकारा दिलाया था | उन्होंने ही एहसास दिलाया था कि वे गुलाम नही है | उन्हें गुलामी की ओढ़ी हुई चादर उतार कर फेक देनी चाहिए |
         सुनीत की मेहनत रंग लाई थी | वह कक्षा छः के प्रथम सत्र में प्रथम  श्रेणी में पास हुआ था | उसके पुराने अध्यापक ने उसे गुणवत्ताधारित स्कॉलरशिप के बारे में बताया था | सुनीत गुणवत्ताधारित फार्म पर पाण्डे के हस्ताक्षर लेने जाता है पर पाण्डे जाति आधरित फार्म भरने के लिए कहता है | सुनीत अड़ जाता है, वह मेरिट आधारित फार्म ही भरेगा | इस पर पाण्डे नाराजगी की स्वर में कहता है ,’’ मेरी समझ में यह नही आ रहा है कि जब सरकार ने तुम लोगो के लिए अलग से स्कॉलरशिप देने की योजना बनाई है तो तुम वही फार्म क्यों नहीं भर रहे है ?’’ १६  अध्यापक हस्ताक्षर करने से इनकार कर देता है | अपने आपको व्यस्त होने का बहाना बनाता है | जब फार्म भरने की अंतिम तिथि होती है, तब भी अध्यापक हस्ताक्षर न देकर दूसरे दिन देने की बात करता है | सुमित्रा की जागरूकता के कारण मुख्याध्यापक के माध्यम से फार्म भर दिया जाता है | दलितों को गुणवत्ता पर आधरित स्कॉलरशिप फार्म भी नही भरा जा सकता था | शिक्षा के क्षेत्र में वाप्त विरोधाभास और जागरूकता तथा संघर्ष का चित्रण यहाँ देखने को मिलता है |
        सालाना परीक्षा  में सुनीत प्रथम श्रेणी में पास तो हुआ था | पर दूसरे क्रम पर आया था | पहले क्रम पर सुशील कुमार था, तो तीसरे पर सुशीला | अगले साल भी ऐसा ही हुआ था | नगरपालिका कार्यालय अधीक्षक का बेटा  अजय शर्मा प्रथम और दूसरे पर सुनीत  तथा तीसरे पर सुमित्रा आयी थी | इतनी मेहनत और परिश्रम के बावजूद भी वह दूसरे ही क्रम पर आ रहा था |  सवर्ण अध्यापक सुनीत का प्रथम होने के बावजूद भी उसे प्रथम आने नही दिया जाता है | वे नही चाहते थे कि सवर्णों के स्कूल से दलित प्रथम आये | उनकी नाक कट जायेगी | जान बुझकर आध्यापक द्वारा उसे अंक कम डालना इर्षा, द्वेष, घृणा, जलन को व्यक्त करता है | इसी बात को अनुभूत करते हुए बंसी सुनीत को समझाता है,’’ बेटे वह तुम्हारा शिक्षक नही दुश्मन है और दुश्मन से हमेशा सावधान रहना चाहिए | दुश्मन चाहे आम आदमी हो या खास आदमी | सवर्ण कभी भी नही चाहते थे कि हमारे बच्चे पढ़े लिखे | क्योंकि अगर वे पढ़ लिख गये तो उन्हें गुलामो की फौज कहाँ से मिलेगी | उनके जानवरों को चारा कौन खिलायेगा, पानी कौन पिलाएगा | उनके बदन की मालिश कौन करेगा |’’ १७ दलितों को शिक्षा से जानबूझकर वंचित रखा गया था | वे शिक्षा ग्रहण करते हुए सवर्णों के आँख की किरकिरी बन गये थे |
          मानवीयता वहाँ शर्मसार होती है जब दलित भंगी करतार अपने बेटे उछाल सिंह का एडमिशन लेने के लिए पांडे के पास जाता है | उसके सामने मिन्नते करता है, गिडगिड़ाता है | ‘’ मास्टर साहब, आप तो म्हारे लिए भगवान के बरब्बर हो |’’ १८  इस पर पांडे आवेश में कहता है ,’’ हाँ,हाँ, हम तो तुम्हारे लिए भगवान के बरब्बर है | इसीलिए पहले तुम लोगों ने मंदिर भ्रष्ट कर दिए और अब स्कूलों में भी गंदगी फैलाओगे |’’ १९  करतारा के आंसुओं से भी पांडे का मन नही पसीजता | सुनीत करतारा को यह कहता हुआ धीरज देता है कि,’’ चाचा जी, ये खुद भी पत्थर है और इनके भगवान भी पत्थर | पत्थरों के सामने रोते नही | ‘’ २०  सुनीत के प्रयत्नों से भूरी भी पढना शुरू कर देती है | ‘’ उनकी पीढ़ी में भुरी पहली लडकी थी, जिसे पढाने का फैसला हो गया था | पीढ़ी-दर-पीढ़ी अंधरे में भटकता वह समाज | जो सवर्ण समाज से मुक्त होते हुए भी परम्पराओं से मुक्त न था | बहिष्कृत अवश्य था | उनके लिए पढ़ना-लिखना केवल सपना था |’’ २१
          कुल मिलाकर उपेक्षित, दरिद्र ढेढ़ चमार, डोम, भंगी आदि दलितों को अक्षर ज्ञान से महरूम रहना पड़ा था | या सोच-समझकर सवर्णों द्वारा रखा गया था | आजादी के बाद दलित बस्ती में स्कूल खुलने से दलितों के बच्चे पढ़ने-लिखने लगे थे | पर शिक्षा का मार्ग इतना सहज नही था | दरिद्रता उनकी जाति शिक्षा अध्ययन में आड़े आ रही थी | उन्हें पग-पग पर दलित होने का अपमान सहते हुए शिक्षा का अर्जन करना था | उपेक्षित, दरिद्र, अछूत, गुलाम दलित समाज को ऊपर उठाना है, तो उन्हें किसी भी हालात में पढ़ना-लिखना आवश्यक था | इसीलिए सुनीत जैसा दलित पात्र विपरीत परिस्थितियों, उपेक्षा, अपमान के जहर को पिता हुआ, सवर्ण समाज की मानसिकता से संघर्ष करता हुआ आगे बढ़ता है | वह उपेक्षा, अपमान, दरिद्रता, षड्यंत्र से पराजित नही होता अपितु वह जिज्ञासा, संघर्ष, संगठन, मेहनत, जिद के बल पर अध्यापक बनता है | सुनीत दलितों का पहला अध्यापक बन समाज सुधार के लिए अपना जीवन समर्पित करता है | वह सुमित्रा के प्रेम को नकारते हुए उसे भी आजीवन मित्र बनकर इस मार्ग पर चलने के लये राजी करता है |
सन्दर्भ :-
१.मुक्तिपर्व –मोहनदास नैमिशराय ,संस्करण -२०११ ,अनुराग प्रकाशन ,नई दिल्ली –आवरण पृष्ठ
२. मुक्तिपर्व –मोहनदास नैमिशराय ,संस्करण -२०११ ,अनुराग प्रकाशन ,नई दिल्ली – पृष्ठ ३९
३. मुक्तिपर्व –मोहनदास नैमिशराय ,संस्करण -२०११ ,अनुराग प्रकाशन ,नई दिल्ली – पृष्ठ  ३९
४. मुक्तिपर्व –मोहनदास नैमिशराय ,संस्करण -२०११ ,अनुराग प्रकाशन ,नई दिल्ली – पृष्ठ ४१
५. मुक्तिपर्व –मोहनदास नैमिशराय ,संस्करण -२०११ ,अनुराग प्रकाशन ,नई दिल्ली – पृष्ठ ४१
६. मुक्तिपर्व –मोहनदास नैमिशराय ,संस्करण -२०११ ,अनुराग प्रकाशन ,नई दिल्ली – पृष्ठ ४३
७. मुक्तिपर्व –मोहनदास नैमिशराय ,संस्करण -२०११ ,अनुराग प्रकाशन ,नई दिल्ली – पृष्ठ ४६
८. मुक्तिपर्व –मोहनदास नैमिशराय ,संस्करण -२०११ ,अनुराग प्रकाशन ,नई दिल्ली – पृष्ठ ५१
९. मुक्तिपर्व –मोहनदास नैमिशराय ,संस्करण -२०११ ,अनुराग प्रकाशन ,नई दिल्ली – पृष्ठ ५१
१०. मुक्तिपर्व –मोहनदास नैमिशराय ,संस्करण -२०११ ,अनुराग प्रकाशन ,नई दिल्ली – पृष्ठ ५४
११. मुक्तिपर्व –मोहनदास नैमिशराय ,संस्करण -२०११ ,अनुराग प्रकाशन ,नई दिल्ली – पृष्ठ ५६
१२. मुक्तिपर्व –मोहनदास नैमिशराय ,संस्करण -२०११ ,अनुराग प्रकाशन ,नई दिल्ली – पृष्ठ ५८
१३. मुक्तिपर्व –मोहनदास नैमिशराय ,संस्करण -२०११ ,अनुराग प्रकाशन ,नई दिल्ली – पृष्ठ ६२
१४. मुक्तिपर्व –मोहनदास नैमिशराय ,संस्करण -२०११ ,अनुराग प्रकाशन ,नई दिल्ली – पृष्ठ ७०-७१
१५. मुक्तिपर्व –मोहनदास नैमिशराय ,संस्करण -२०११ ,अनुराग प्रकाशन ,नई दिल्ली – पृष्ठ ७१
१६. मुक्तिपर्व –मोहनदास नैमिशराय ,संस्करण -२०११ ,अनुराग प्रकाशन ,नई दिल्ली – पृष्ठ  ७२ 
१७. मुक्तिपर्व –मोहनदास नैमिशराय ,संस्करण -२०११ ,अनुराग प्रकाशन ,नई दिल्ली – पृष्ठ  ७७
१८. मुक्तिपर्व –मोहनदास नैमिशराय ,संस्करण -२०११ ,अनुराग प्रकाशन ,नई दिल्ली – पृष्ठ ९७
१९. मुक्तिपर्व –मोहनदास नैमिशराय ,संस्करण -२०११ ,अनुराग प्रकाशन ,नई दिल्ली – पृष्ठ ९७
२०. मुक्तिपर्व –मोहनदास नैमिशराय ,संस्करण -२०११ ,अनुराग प्रकाशन ,नई दिल्ली – पृष्ठ ९७-९८
२१. मुक्तिपर्व –मोहनदास नैमिशराय ,संस्करण -२०११ ,अनुराग प्रकाशन ,नई दिल्ली – पृष्ठ १०३



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